Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



113. सन्निपात -भेरी : वैशाली की नगरवधू

फसल कट चुकी थी और वर्षा आरम्भ होना चाहती थी । वैशाली में युद्ध की चर्चा फैलती जाती थी । मगध- सम्राट बिम्बसार की भीषण तैयारियों की सूचना प्रतिदिन चर ला रहे थे। परिषद् की गणसंस्था ने युद्ध- उद्वाहिका के संयुक्त सन्निपात - भेरी की विशिष्ट बैठक का आवाहन किया था । संथागार में वज्जीगण के अष्टकुल - प्रतिनिधि , नौ मल्ल -संघों के और अठारह कासी -कोलों के गण राज्यों के राजप्रमुख आमन्त्रित थे। सम्पूर्ण उद्वाहिका - सदस्य उपस्थित थे।

गणपति ने उद्वाहिका का उद्घा1टन किया । उन्होंने खड़े होकर कहा - “ भन्ते गण सुनें , आज जिस गुरुतर कार्य के लिए वज्जी - मल्लकोल के गणराज्यों का यह संयुक्त सन्निपात हुआ है उसे मैं गण को निवेदन करता हूं । गण को भलीभांति विदित है कि मगध- सम्राट बिम्बसार वज्जी के अष्टकुलों के गणतन्त्र को नष्ट करने पर कटिबद्ध हैं । वज्जीगण के साथ मल्लों के नौ संघराज्यों से कासीकोलों के अठारह गणराज्यों का भाग्य बंधा है । गण को संधिवैग्राहिक आयुष्मान् जयराज बताएंगे कि शत्रु ने किन -किन कूट चालों से हमें युद्ध के लिए विवश किया है । कोसलपति महाराज प्रसेनजित् से परास्त होकर सम्राट् बिम्बसार का उत्साह भंग हो जाएगा , हमने यही आशा की थी परन्तु ऐसा नहीं हुआ । हमें अभी ये सुविधाएं हैं कि पड़ोसी राज्यों के समाचार हमें समय पर ठीक -ठीक मिल जाते हैं । इसी से हमसे मगध की यह विकट समर - सज्जा छिपी नहीं रही है । भन्तेगण, आज वज्जीगण के अष्टकुल पर और मल्ल - कासी - कोल गणराज्यों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं और हम कह सकते हैं कि अब किसी भी क्षण वज्जीसंघ की राजधानी वैशाली पर मगधसेना का आक्रमण हो सकता है। ”

इतना कहकर गणपति बैठ गए । परराष्ट्रसचिव नागसेन ने अब खड़े होकर कहा

“ भन्तेगण सुनें , गणपति ने जो सत्य विभीषिकापूर्ण सूचना दी है, उसकी गम्भीरता एक और घटना से और बढ़ जाती है । भन्तेगण जानते हैं कि कौशाम्बी नरेश शतानीक ने पूर्वकाल में चम्पा पर आक्रमण करके उसे आक्रान्त किया था ; आप यह भी जानते हैं कि चम्पा की तटस्थता एवं मित्रता का वज्जी के साथी गणराज्यों से कैसे गम्भीर स्वार्थ हैं । साथ ही यह बात भी नहीं भुलाई जा सकती कि चम्पा का स्वतन्त्र राज्य मगध की आंखों का पुराना शूल था , क्योंकि वह उसकी पूर्वी सीमा से मिला था और जब तक वह स्वाधीन था , मगध- सम्राट् बंग , कलिंग की ओर आंख उठाकर भी देख नहीं सकता था । अंग -बंग- कलिंग वास्तव में राजनीतिक एकता में पूरे आबद्ध हैं । इधर हमारा लगभग आधा वाणिज्य चम्पा ही के मार्ग से स्वर्णद्वीप और मलयद्वीप - पुञ्ज तक पहुंच जाता है। इससे अंग की राजधानी चम्पा हमारे वाणिज्य ही के लिए केन्द्र नहीं थी , प्रत्युत मगध- सम्राट के लिए भी कण्टक रूप थी । इसी से कौशाम्बीपति उदयन से जब हमारी संधि हुई, तब हमने उन्हें विवश किया था , कि वे अंग को स्वतंत्र राज्य घोषित करें । और उन्होंने भी प्रसेनजित् और मगध सम्राट के बीच व्यवधान रखने ही में कल्याण समझकर हमारा प्रस्ताव मान लिया था और दधिवाहन को अंगपति मानकर चम्पा में उसका अभिषेक कर दिया था । अब मगध - सम्राट ने चम्पा के इस दुर्बल असहाय राजा दधिवाहन को मारकर अंग - राज्य को मगध - साम्राज्य में मिला लिया है । इससे न केवल पूर्व में बंग और कलिंग के लिए भय उत्पन्न हो गया है , प्रत्युत हमारा पूर्वी वाणिज्य ही समाप्त हो गया है । ”

नागसेन यह कहकर बैठ गए । अब सन्धि - वैग्राहिक जयराज ने खड़े होकर कहा

“ भन्तेगण , आपने गणपति और परराष्ट्रसचिव के भाषण सुने । मैं गण का ध्यान अपने अष्टकुल के संगठन और उस पर आने वाली विपत्ति की ओर आकर्षित करना चाहता हूं । मगध- साम्राज्य में अब से कुछ ही वर्ष प्रथम केवल अस्सी सहस्र ग्राम थे और उसकी परिधि तेईस कोस थी । परन्तु आज उसका विस्तार आसमुद्र सम्पूर्ण भरतखण्ड पर है। उसके साम्राज्य में दो - चार छिद्र हैं , उनमें हमारे गणराज्य ही सबसे अधिक उसकी आंख में खटक रहे हैं । प्रसेनजित् ने उसे हरा दिया था , पर वास्तव में उसका कारण बन्धुल मल्ल और उसके पुत्रों का पराक्रम था । बूढ़ा कामुक प्रसेनजित् आज आकाश से टूटे तारे की भांति लोप हो गया । इसी से बिम्बसार को इतना साहस हुआ कि हम पर अभियान कर रहा है। अब तक हमारे अष्टकुलों में मिथिला के विदेह, कुण्यपुर के क्षत्रिय , कोल्लाग के उग्र ऐक्ष्वाकु लिच्छवि आदि अपना ठीक संगठन बनाए रहे हैं । पावा और कुशीनारा के मल्लों के नौ गण संघ भी आज हमारे साथ हैं और कासी - कोलों के अष्टदश गणराज्य भी । इस प्रकार कासी कोल - राज्य, वज्जी -गणराज्य - संघ और मल्ल गणराज्य संघों का त्रिपुट हमारा सम्पूर्ण संगठन है । मगध - सम्राट् ने हमारे संयुक्त गणराज्य पर अब अभियान किया है,इसी से हमने आज मल्लों, अष्टकुल - वज्जियों तथा कासी - कोलों के अठारह गणराज्यों की इस सन्निपात भेरी का आवाहन किया है। ”

इतना कहकर सन्धिवैग्राहिक जयराज कुछ देर चुप रहे , फिर उन्होंने उपस्थित गण - सन्निपात की ओर देखकर कहा

“ भन्तेगण, आप जानते हैं कि आज भरतखण्ड में षोडश महा जनपद हैं । इन षोडश जनपदों से कासी , कोल , वज्जी, मल्ल इन चारों गणसंघों के छत्तीस राज्यों का हमारा संयुक्त सन्निपात एक ओर है । अब चेतिक के दोनों उपनिवेशों के उपचर - अपचर से हमें सन्धि करने की आवश्यकता है । चेतिक की राजधानी सुत्तिमती को जो मार्ग कासी होकर जाता है , उसमें दस्युओं का भय है और हमें वहां सुरक्षा का सम्पूर्ण प्रबन्ध करके अपना चर भेजना आवश्यक है ।

“ रही कौशाम्बीपति उदयन की बात , वे भी हमारे मित्र हैं । कुरु के कौरव प्रधान राष्ट्रपाल और पांचाल ब्रह्मदत्त हमारे गण के समर्थक हैं । ये दोनों गण भलीभांति सुगठित हैं । निस्सन्देह मथुरा के महाराज अवन्तिवर्मन और अवन्ती के चण्डमहासेन हमारे पक्ष में नहीं हैं । परन्तु चण्डमहासेन कभी भी अपने जामाता उदयन के विरोधी नहीं होंगे। फिर इन दोनों से मगध का विग्रह है। यद्यपि मगध सम्राट ने भी उदयन को अपनी कन्या देकर भारी राजनीति प्रकट की है और कुटिल वर्षकार ने यौगन्धरायण को भरमाकर मैत्री सूत्र में बांधा है, फिर भी अनेक गम्भीर कारण ऐसे हैं कि वत्स के महामात्य यौगन्धरायण के कुशल कौटिल्य से ये दोनों महाराज इस युद्ध में सर्वथा उदासीन ही रहेंगे । परन्तु हमें इसी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। महाराज उदयन से हमारी मित्रता के सूत्र और भी दृढ़ रहने चाहिए और इसके लिए हमें भन्तेगण, देवी अम्बपाली का अनुरोध प्राप्त करना होगा । देवी अम्बपाली ही का ऐसा प्रभाव महाराज उदयन पर है कि वे आंखें बन्द करके यौगन्धरायण के परामर्श की अवहेलना कर सकते हैं ।

“ भन्तेगण, अब मैं आपका ध्यान सुदूर राज्यों की ओर आकर्षित करना चाहता हूं , दक्षिण के अस्सकराज अरुण और गान्धार के महागणपति पुक्कणति । आप जानते हैं कि गान्धारपति पुक्कणति ने मगध- सम्राट् बिम्बसार को पठौनी भेजी थी । वे चाहते थे , कि पशुपुरी के शासानुशास को बिम्बसार सहायता दे। उनकी कठिनाइयां भी बड़ी पेचीली एवं दु: खप्रद हैं । उनका छोटा - सा गण पार्शवों का अब देर तक सामना नहीं कर सकता । पार्शव शासानुशास दारयोश ने पश्चिम गान्धार को अभी- अभी अपने साम्राज्य में मिला लिया है । वह अब सम्पूर्ण तक्षशिला और गान्धार के जनपद को आक्रान्त किया चाहता है। वास्तव में पशुपति दारयोश पश्चिम का बिम्बसार है । इसी से सहायता की इच्छा से गांधार के गणपति ने मगध - सम्राट् बिम्बसार को पठौनी भेजी थी । परन्तु मगध - सम्राट् के लिए अपनी ही उलझनें थोड़ी नहीं थीं । गान्धार का मगध पर कुछ ऋण भी है। मगध के अनेक मागध तरुण तक्षशिला के सर्वोत्कृष्ट स्नातक हैं । उन्होंने गान्धार राज को बहुत - कुछ आश्वासन वहां से आती बार दिया था , परन्तु मित्र सिंह ने भी उन्हीं के साथ तक्षशिला छोड़ा था और उन्होंने गान्धारपति को समझा दिया था , कि मगध- सम्राट् बिम्बसार पूर्व का दारयोश है । ऐसे साम्राज्य लोलुपों से आशा मत कीजिए। वज्जियों का अष्टकुल पूर्वी गांधारतन्त्र है और वह आपका मित्र है । इसलिए वैशाली गांधार के अपने ऋण को उतारेगा । ”

कुछ देर चुप रहकर जयराज फिर बोले - “ इसलिए मित्रो , हमने मित्र सिंह के परामर्श से गांधारपति को जो सम्भव हुआ , सहायता भेजी और आपको अभी मित्र काप्यक बताएंगे , कि जिस काल मगध - सम्राट् चम्पा और श्रावस्ती में व्यस्त थे - वैशाली के तरुणों ने सुदूर सिन्धुनद के तीर पर अपने खड्ग की धार से वज्जियों के अष्टकुल का कैसा मनोरम इतिहास लिखा था ।

“ परन्तु मैं अभी कुछ और भी बातें कहूंगा; भन्तेगण सुनें ! - अस्सक का राजा अरुण कलिंग गणपति सत्तभू पर आक्रमण करना चाहता है । कलिंग- गणपति ने वज्जियों के अष्टकुलों की सहायता मांगी है और पूर्व समुद्र में अपनी स्थिति ठीक रखने के विचार से हमने उसे स्वीकार कर लिया है तथा कलिंग राज्य से हमारी सन्तोषप्रद सन्धि हो गई है । रहा अस्सक , सो कभी वैशाली के तरुणों के खड्ग से उसका भी निर्णय हो जाएगा । अब काम्बोजों के बर्बरों का ही वर्णन रह गया है । वे थोड़े से स्वर्ण और उत्तम शस्त्र पाकर ही अपना रक्तदान हमें दे सकते हैं । इस प्रकार भन्तेगण, हमने सोलह महाजनपदों में अपनी स्थिति यथासम्भव ठीक कर ली है। ”

जयराज महासन्धिवैग्राहिक यह कहकर बैठ गए। अब गांधार काप्यक ने खड़े होकर कहा - “ भन्तेगण सुनें , अष्टमहाकुल के वज्जियों ने जो कुछ सिन्धुनद पर अपनी कीर्ति विस्तार की है, उसी का बखान करने मैं यहां आया हूं , गान्धारगणपति की ओर से साधुवाद और कृतज्ञता का सन्देश लेकर ।

“ वज्जीगणों के नागरिकों की सेना में सम्मिलित होने का मुझे सम्मान मिला था । आचार्य बहुलाश्व ने स्वयं उसका निरीक्षण किया था । अश्व - संचालन और शार्ग धनुष , खड्ग , शल्य , गदा और शक्ति के युद्ध में वैशाली - संघ के तरुण गान्धार तरुणों से किसी प्रकार कम न थे। भन्तेगण, ऐसे मित्रों को पाकर हमें गर्व हुआ । आचार्य बहुलाश्व ने उन्हें पुष्कलावती से आनेवाले राजमार्ग से सम्पूर्ण सिन्धुतट की रक्षा का भार सौंपा था । शास ने शिरभी, सौवीर, पख्त , भलानस और वक्षु नदी के उत्तर तथा पर्शपुरी के पूर्व के सम्पूर्ण जनपद को ध्वंस करने की बड़ी भारी तैयारी की थी । परन्तु उसकी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि वह सिन्धु को जहां से चाहे पार नहीं कर सकता था । उसे वैशाली के तरुणों से रक्षित - गोपित घाटों ही से नदी पार करना अनिवार्य था । भन्ते, मैं अत्युक्ति नहीं करता, इन वीर तरुण वज्जियों के कौशल और शौर्य ही के कारण वह अपने सम्पूर्ण जनबल से लाभ नहीं उठा सका और हमने उसके खण्ड - खण्ड करके सदैव के लिए उसको दलित कर दिया । वह बहुत कम बल लेकर पीछे लौट सका। वज्जी वीरों ने गांधार तरुणों के साथ सिन्धु पार कर पुष्कलावती , सुवास्तु और कुभा तक उसका पीछा किया और शत्रुवाहिनी - पति को जीवित पकड़ लिया । तब हमारे प्रधान सेनानायक प्रियमेघ ने अश्रु-गद्गद होकर कहा था तक्षशिला सदा के लिए वैशाली का ऋणी रहेगा .... और आज अपने सेनापति के वे ही शब्द मैं भी संथागार में दुहराता हूं। ”

प्रचण्ड करतल - ध्वनि और साधु- साधु की ध्वनि के बीच काप्यक चुपचाप खड़े रहे । फिर ठहरकर बोले - “ गान्धार में वज्जियों के अष्टकुलों की कीर्ति -ध्वजा फहरानेवाले, शासनुशास के वाहिनीपति को जीवित बन्दी बनानेवाले मेरे सुहृद् प्रियदर्शी सिंह यहां आपके सम्मुख उपस्थित हैं , जिनके नेतृत्व में वैशाली तन्त्र के तरुणों ने वह कीर्ति कमाई थी । वहां हमारे संघ ने वयस्य सिंह को गान्धार जनपद का नागरिक और गांधार गण- संघ का आजन्म सदस्य चुना था । परन्तु भन्तेगण , मुझे और भी कुछ कहना है। जब हर्षध्वनि के बीच आचार्य बहुलाश्व ने गांधारगण के समक्ष यह घोषणा की कि उनकी सुकुमारी कुमारी रोहिणी का वीरवर सिंह के प्रति सात्त्विक प्रेम है और वे उसका अनुमोदन करते हैं , तब सम्पूर्ण गणजन में आनन्द और उल्लास का समुद्र हिलारें लेने लगा और गणजन ने इच्छा प्रकट की कि रोहिणी और सिंह का पाणिग्रहण गण के समक्ष वहीं हो ।

“ गणपति की इस आज्ञा का पालन करने जब सुश्री रोहिणी वक्षकोष्ठक में बैठी सखियों के बीच से उठ लज्जा और हर्ष से आरक्त - अवनतमुखी अपनी माता के पीछे-पीछे शाला के भीतर आई, तो सदस्यों की उत्सुक दृष्टियों के भार से जैसे वह दब गई। उसके सुनहरे तार के समान बालों में अंगूर के ताजे गुच्छों का और जवाकुसुमों का शृंगार था , उसने कण्ठ में मुक्तामाल और कान में हीरक - कुण्डल पहने थे। वह सुन्दर कौशेय और काशिक के उत्तरीय अन्तर्वासक और कंचुक से सुसज्जिता थी । उस समय वह गान्धार जनपद की कुलदेवी - सी प्रतीत होती थी । गान्धारराज ने अपने हाथों उसे सिंह को समर्पित किया ; और समस्त जनपद ने दूसरे दिन गण -नक्षत्र मनाया , जो हम जातीय त्योहार के दिन ही मनाते हैं । भन्ते, इस प्रकार गान्धार जनपद ने अष्टकुल के वज्जियों की वीरता का जो अधिक- से - अधिक सम्मान किया जा सकता था -किया । परन्तु फिर भी गान्धार गणपति ने घोषित किया था कि यह यथेष्ट नहीं है। और फिर गांधार गणसंघ ने एक नागरिक शिष्टमंडल इस अकिंचन की अध्यक्षता में इसलिए भेजा है कि हम लोग वैशाली गणतन्त्र के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करें । भन्ते , अन्त में मैं यह और कहना चाहता हूं कि दो ही चार दिन में युद्ध में भाग लेने गान्धार से चिकित्सकों और तरुणों का एक सुदृढ़ दल वैशाली में आ रहा बड़ी देर तक हर्षध्वनि होती रही। काच्यक गान्धार चुपचाप आसन पर बैठ गए । अब गणपति उठे और सर्वत्र सन्नाटा छा गया । उन्होंने कहा

“ भन्तेगण सुनें , आयुष्मान् नाग व जयराज और काप्यक के वक्तव्य आपने सुने । आयुष्मान् सिंह के शौर्य की जितनी प्रशंसा की जाय , थोड़ी है । परिस्थिति पर आपने विचार किया है । अब मैं आपके सामने प्रस्ताव रखता हूं । प्रथम , प्रान्त और कोष की रक्षा । दूसरे , अश्वारोही, पदातिक और नौसेना का संगठन । तीसरे, राजस्व - कोष और युद्धोत्पादन उत्पादन । चौथा , कूटनीति , प्रचार और गुप्तचर । ।

“ भन्तेगण , प्रथम बार मैं प्रस्ताव करता हूं कि प्रान्त और कोष की रक्षा के लिए आयुष्मान् सूर्यमल्ल का निर्वाचन हो । आयुष्मान् सूर्यमल्ल महाअट्टवी - रक्खक के पद पर सुचारु कार्य करते रहे हैं । वे समस्त सीमाप्रान्तों , नगर - दुर्गों एवं घाटों तथा राजमार्गों से परिचित हैं । अब जो आयुष्मान् को इस पद पर चुनते हैं वे चुप रहें । ”

परिषद् में सन्नाटा था । गणपति ने थोड़ा ठहरकर कहा - “ दूसरी बार भी भन्तेगण सुनें -जिसे यह पद आयुष्मान् के लिए स्वीकृत हो , वे चुप रहें । ”

थोड़ी देर फिर सन्नाटा रहा । गणपति फिर बोले - “ तीसरी बार भी भन्तेगण सुनें जिसे प्रान्त और कोष्ठ की रक्षा के लिए आयुष्मान् सूर्यमल्ल का निर्वाचन स्वीकृत हो , वे चुप रहें , न बोलें । ”

क्षण - भर ठहरकर गणपति ने घोषित किया कि सूर्यमल्ल उस पद पर चुन लिए गए।

अब गणपति ने कहा - “ अब भन्तेगण , प्रथम बार सुनें , मैं आयुष्मान् सिंह को छत्तीस गणराज्यों की संयुक्त समस्त चतुरंगिणी , पदाति , अश्वारोही और नौसेना के लिए सेनापति का प्रस्ताव रखता हूं । जो सहमत हों , वे चुप रहें ।

सभा में सन्नाटा था । क्षण- भर ठहरकर गणपति ने फिर कहा - “ भन्तेगण , दूसरी बार फिर सुनें , मैं आयुष्मान् सिंह को सेनापति पद के लिए चुनने का प्रस्ताव रखता हूं । जो सहमत हों , चुप रहें । ”

इस पर भी सन्नाटा रहा । गणपति ने कहा - “ तीसरी बार भन्तेगण सुनें , समस्त सेनापति के पद पर आयुष्मान् सिंह के लिए मैं प्रस्ताव करता हूं । ”

इसी समय सिंह धीरे से परिषद्- भवन के बीचोंबीच आ खड़े हुए । गणपति ने कहा - “ आयुष्मान् कुछ कहना चाहते हैं , कहें । ”

सिंह ने कहा - “ भन्तेगण सुनें , गणपति और जनसंघ जो सम्मान मुझे देना चाहते हैं , उसके लिए मैं आभार मानता हूं । परन्तु मेरी अभिलाषा है कि इस पद के उपयुक्त पात्र वज्जीगण के महाबलाध्यक्ष सुमन हैं । अत : मैं प्रस्ताव करता हूं कि इस सेनापति पद पर वही रहें और हम लोग उनकी अधीनता में युद्ध करें । ”

एक- दो सदस्यों ने कहा - “ साधु-साधु! ”

तब गणपति ने कहा - “ परिषद् में सेनापति पद के लिए थोड़ा मतभेद है। इसलिए छन्द लेने की आवश्यकता है । भन्तेगण, आप सावधान हों । शलाकाग्राहक छन्द शलाकाएं लेकर आपके पास आ रहे हैं । उनके एक हाथ की डालियों में लाल शलाकाएं हैं , दूसरी में काली। लाल शलाका हां के लिए है और काली नहीं के लिए । अब जो आयुष्मान् मेरे मूल प्रस्ताव का अनुमोदन करते हैं , अर्थात् सिंह को प्रधान सेनापति - पद देना चाहते हैं , वे लाल शलाका लें । और जो आयुष्मान् सिंह द्वारा संशोधित प्रस्ताव के अनुसार सेनापति सुमन को चाहते हैं , वे काली शलाका लें । ”

सिंह ने फिर खड़े होकर कुछ कहने की इच्छा प्रकट की । गणपति ने कहा - “ आयुष्मान् फिर कुछ कहना चाहता है , कहे । ”

सिंह ने कहा - “ भन्तेगण सुनें । मेरा प्रस्ताव गणपति के मूल प्रस्ताव का विरोधी नहीं है। सेनापति सुमन हमारे श्रद्धास्पद, वृद्ध अनुभवी सेनानायक हैं । उनका अनुभव बहुत भारी है। उन्होंने बड़े- बड़े युद्ध जीते हैं । वैशाली के लिए उनकी सेवाएं असाधारण हैं । इसलिए हम सब तरुणों को उनके वरदहस्त के नीचे युद्ध करना सब भांति शोभा - योग्य है , उचित भी है । कम - से - कम मेरे लिए उनकी अधीनता में युद्ध करना सेनापति होने की अपेक्षा अधिक सौभाग्यमय है । इससे मैं अनुरोध करता हूं कि आप भन्तेगण काली शलाका ही ग्रहण करें । ”

परिषद् में फिर ‘ साधु -साधु की ध्वनि गूंज उठी। शलाका - ग्राहक छन्दशलाका लेकर एक - एक सदस्य के पास गए । सबने एक - एक शलाका ली । लौटने पर गणपति ने गिना । काली कम लौटी थीं । गणपति ने घोषित किया - “ काली शलाकाएं कम लौटी हैं । तो भन्ते गण , आयुष्मान सिंह के प्रस्ताव से सहमत हैं । तब सेनानायक सुमन सम्पूर्ण संयुक्त सेना के सेनापति निर्वाचित हुए ।

“ अब भन्तेगण सुनें , प्रथम बार मैं राजस्व, कोष और युद्धोत्पादन के लिए आयुष्मान् भद्रिय का प्रस्ताव करता हूं । ”

फिर तीन बार गणपति ने परिषद् की स्वीकृति लेने पर कूटनीति और गुप्त विभाग का अधिपति संधिवैग्राहिक जयराज को बनाया ।

इसके बाद सिंह उपसेनापति, गान्धार काप्यक नौसेनापति , आगार- कोष्ठक स्वर्णसेन नियत हुए। यह सब कार्य - सम्पादन होने पर गणपति ने कहा - “ भन्तेगण सुनें , हमने युद्ध उद्वाहिका का संगठन कर लिया । अब हमें धन और अन्न की आवश्यकता है । राजकोष में युद्ध- संचालन के योग्य यथेष्ट धन नहीं है । यदि राजकोष का स्थायी कोष सन्तोषजनक न हुआ तो इसका परिणाम अच्छा न होगा । ”

सूर्यमल्ल ने खड़े होकर कहा - “ तब धन आएगा कहां से ? धन के बिना शस्त्र , नौका , अश्व और दूसरे उपादान कैसे जुटेंगे ? ”

“ नहीं जुटेंगे, इसी से भन्तेगण, हमें सेट्टियों से धन ऋण लेना होगा । ”भद्रिय ने कहा।

“ सेट्ठिजन ऋण क्यों देंगे ? ”स्वर्णसेन ने कहा ।

“ क्यों नहीं देंगे , क्या गण के साथ उनकी सुख- समृद्धि संयुक्त नहीं है ? क्या वे गण की व्यवस्था ही से अपने वाणिज्य - व्यापार नहीं कर रहे हैं ? क्या श्रेणिक बिम्बसार का

उदाहरण हमारे सम्मुख नहीं है ? ”

महासेनापति सुमन ने कहा - “ भन्तेगण सुनें , जो संकट आज हमारे सम्मुख है, ऐसा वैशाली पर कभी नहीं आया था । शत्रु को यही छिद्र मिल गया है, कि हमारी सेना और कोष अव्यवस्थित और अपर्याप्त हैं , तभी वह साहस कर रहा है; और यह झूठ भी नहीं है । हमें नियमित राजस्व नहीं मिल रहा है। दुर्ग -प्राकारों और नगर -प्राकारों का भी संस्कार कराना आवश्यक है। परिखा में जल नहीं है और उसमें मिट्टी भर गई है, वे खेत हो रही हैं । ”

भद्रिय ने खड़े होकर कहा - “ भन्तेगण सुनें , सेट्टि और सार्थवाह परिषद् को दस कोटि सुवर्ण धन ऋण दे और यह ऋण उन्हें बारह वर्ष में चुकाया जाएगा । मैं आशा करता हूं कि वे गण को प्रसन्नता से धन देंगे । ”

सिंह ने खड़े होकर कहा - “ भन्तेगण सुनें , धन की व्यवस्था हो जाए तो और विषयों का युद्ध- उद्वाहिका अपने मोहनगृह के गुप्त अधिवेशनों में निर्णय करे , जिससे शत्रु को छिद्रान्वेषण का अवसर न मिले । ”

इस पर कोलियगण राजप्रमुख विश्वभूति ने कहा - “ कासी - कोलों के अठारह गणराज्य इस युद्ध में अर्ध अक्षौहिणी सेना और तीन कोटि सुवर्ण- भार देंगे। अपने सैन्य की रसद -व्यवस्था वे स्वयं करेंगे ।

सन्निपात ने प्रसन्नता प्रकट की । मल्लों के प्रमुख रोहक ने कहा - “ तो एक सहस्र हाथी , इतने ही रथ , बीस सहस्र अश्वभट और पचास सहस्र पदाति मल्लों के नौ गणराज्य देंगे तथा अपना सब व्यय- भार उठाएंगे । मल्ल युद्ध- उद्वाहिका को अपने सम्पूर्ण तटों , दुर्गों और युद्धोपयोगी स्थलों को उपयोग करने का भी अधिकार देते हैं । ”

महाबलाधिकृत ने अब युद्ध- उद्वाहिका का इस प्रकार संगठन किया

“ महाबलाधिकृत सुमन सेनापति , सिंह उपसेनापति , नौबलाध्यक्ष गान्धार काप्यक , राजस्व- कोष और युद्धोत्पादन भद्रिय , रसदाध्यक्ष स्वर्णसेन , प्रान्तकोष्ठ रक्षक सूर्यमल्ल । कासीकोल -प्रतिनिधि विश्वभूति और मल्ल - प्रतिनिधि रोहक । ”

इसके बाद सन्निपात- भेरी का कार्य समाप्त हुआ ।

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